Monday, November 28, 2011

परों में आसमान की आग

मेरी बेगुनाही की चीख कौन सुनेगा !! यहाँ तो हर कान में राख भर चुकी है, जो मेरे गाँव तक उड़ कर आई थी उस जंगल से, जिसमें लगी आग मैंने बुझानी चाही थी| अपने जले हुए हाथों को किसे दिखाता, पहले लोगों ने जंगल में लगी आग का तमाशा देख जश्न मनाया और फिर उससे उठे धुएँ और रख से पैदा हुई धुंध पर मातम| जिस जंगल के पेड़ों के फल मैंने सिर्फ इसलिए नहीं खाए क्यूँकी मेरा गाँव भूखा न रह जाए, दिन-रात लकड़ी के तस्करों से जंगल की रखवाली की और आज मुझ पर उसी जंगल को आग लगाने का आरोप है| गाँव की पंचायत महज़ राख़ देखकर फैसला देगी - जिसकी नज़दीकी जंगल से जितनी ज्यादा वो राख़ से सराबोर उतना, फिर उसका आग से लपटकर रोना नहीं देखा जायेगा, सिर्फ उसकी मौजूदगी उसका दोष करार देदी जाएगी| जिस गाँव को अपना माना था, उसकी सोच और नीयत पर शर्म आती है कि वो मुझे दोषी कहते हैं और अपने घरों तक उड़कर आई राख़ से पक्के माकन बनाने के लिए ईटें बनाने कि तकनीक खोज लेते हैं| दुःख होता है और अफ़सोस भी, काश मैंने आग गाँव को लगाई होती तो मेरा जंगल भी आबाद रहता और मुझे दोष देने वाला कोई जिंदा भी ना बचता|