millions of thoughts,may unacted;persistent observations and contemplations,may without a bang;extreme emotions and frustration,may let the arms taken up;and with all their solitude my mind and heart....half-baked
Saturday, April 10, 2010
it's JEE tomorrow
Tuesday, April 6, 2010
Where's the NEED?
What the lady aside selling is some wafers and packets of gram. To her if I would have asked about the very longing of government and so intensely debated 'Women's Reservation Bill': What answer should I expect?-Whether she will give her deliberated comment-No,she won't and the reason is simple, because SHE CAN'T !! She has come 200 meters up at the Ramtekri hill to sell the mere packets of gram for monkeys worth 7 for 10 bucks.Almost 10 kms She has walked to take those 10 bucks back to her home.I really feel sad about the disparity but what's there, to feel about it untill it is not acted upon.What's the meaning of 'inclusive growth' then??????????????????????
So many question marks........................
One poem of Dr. Harivansh Rai Bachchan, very incisively describing the situation....
बहुत दिन बीते
१९ जनवरी १९६६
लाल घाँघरा,
काली कुर्ती,
काले सालू,
मोटे जूतों में
बांगड़ की
मेहनतकश, मज़बूत औरतें
सड़क बनातीं,
गिट्टी ढोतीं,
कोलतार के ड्रम गरमातीं,
कोलतार-भीगी गिट्टी को-गरम-
फावड़ों से फैलातीं |
कोलतार से काले
उनके हाथ हुए हैं,
कोई काली रेख घांघरे के ऊपर भी,
चेहरे पर भी |
बंधा हुआ मैले कपडे में
पेड़ तले रातिब रक्खा है,
जहाँ पड़े हैं उनके बच्चे
धुप-छांह में'
जिन्हें उन्होंने
थोड़ी सी अफीम देकर के
सुला दिया है'
कम कर सकें वे फुर्सत से|
खून-पसीने की रोटी
खानेवाली ये'
एडी से लेकर छोटी तक
मर-मेहनत में'
मार-थकावट में डूबी ये
नहीं जानतीं
इसके भी अतिरिक्त कहीं कुछ
दुनिया में होता-जाता है |
साधारण दिन आज नहीं है |
इनसे मैंने रूककर पूछा,
" क्या तुमको मालूम,
अचानक,
भारत के प्रधान मंत्री की
मृत्यु हो गई, ताश्कंद में?"
"हाँ मालूम-लगो थो मेलो !"
"क्या तुमको मालूम
कि मंत्री नया चुना जाने वाला है ?-
ठीक इस समय, लोग हजारों
घेरे संसद भवन खड़े हैं,
घर-बैठे रेडियो लगाए,
बाहर वाले ट्रांसिस्टर लटकाए, खोले,
घिरे दस-पांच जनों से
जगह-जगह पर-
लोग कान ही कान हो रहे,
मंत्री होते हैं मुरार जी
या की इंदिरा गाँधी होतीं ?-
बदल रहा मंत्रित्व देश का ;
और तुम्हें कुछ खबर नहीं है |
और ना तुममें इसे जानने की
उत्सुकता !
तुम भी क्या हो !"-
"साहब, हमारो
ठेकेदार नईं बदलो है !"
"साहब, बड़ो जालिम हकाम है !"
"साहब, उसे बदलो तो जानैं !"
खड़ा रहा मैं
किन ख्यालों में खोया-खोया !-
चली गयीं वे इतना कहकर,
ड्रम लुढकाने,
गिट्टी लाने,
सड़क बनाने,
कल का रातिब आज कमाने |
Sunday, April 4, 2010
cinemai-safar
कल तो बीमारी का बहाना बना दिया
लेक्चर बंक करा दोस्तों ने सिनेमा दिखा दिया
आज तो मन बेचैन है की पढना है
पर फिल्म का पहला शो भी ना तजना है
अब कश्मकश किस और ले जाएगी
लगता तो यही है कि पापाजी कि लाठी पड़वाएगी
फिर पढने की व्यस्तता में से तीन घंटे
चार चेप्टर छोड़ भी दो तो चालीस तो पक्के
भाई, तीन घंटे तो फिर भी समझ आ गए
पर ये सिनेमाई-तफ्तीश के दौर दो घंटे और खा गए
गपशप में डूबे दो घंटे और
हम चले पासिंग मार्क्स की और
चालीस नहीं तो तैंतीस तो आ ही जाएंगे
एग्रीगेट हम प्रक्टिकल से बनाएँगे
घर पहोंचते ही किताब पर नज़र डाली
उसकी लम्बाई-चौड़ाई ने साँस फुला डाली
बचा अब तो बस कुंजी और अन्साल्वड का सहारा था
बेमतलब हमने कितना समय गवां डाला था
फिर भी कांफिडेंस में कमी नहीं है
लगता है आइन्स्टीन और न्यूटन के वंशज यही हैं
आत्म-विशलेषण के इस दौर ने आधा घंटा खा लिया
घडी ने दिखा बारह टेबल पर ही सुला दिया
सुबह उठके पढने का दृढ संकल्प लिए
अलार्म घडी और किताब गोद में लिए
नींद तो तुरंत आ गई, पर
सपने में सिनेमा की स्टोरी छा गई
नायिका की गोद में तो नायक था
ये हमारे जैसा दिखता कौन नालायक था
खैर मुलायम गोद और प्यार की थपकी में
अम्मा याद आ गई, जब चार बजे
उठना था, जो घडी सात बजा गई
घडी में बजे हैं सात, पेपर है आठ पर
क्या पास कर जाएंगे भैया साठ-गांठ कर
लगता तो नहीं: कुछ तो पढ़ लिए होते
पर्ची के छोटे अक्षर अंतर्ज्ञान से पढ़ लिए होते
पर अब तो सब गुजर चुका था
तीन घंटे का एक और सिनेमाई सफ़र बिना इंटरवल के
ख़त्म हो गया, भैया बेचारा
ये दोस्तों की सिनेमा के कारण फेल हो गया |
चेमिस्ट्री में आई री-एक्साम के बाद लिखी मेरी एक कविता |
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