Sunday, August 22, 2010

टूटते परिवारों का बच्चों पर प्रभाव

सदियों पहले मनुष्य ने समूहों में रहना शुरू किया| परिवार नाम की मौलिक इकाई की नींव सम्भवतः तभी रखी गई| अपने जैसे और प्राणियों के साथ रहना और व्यवहार करना मनुष्य ने तभी से सीखा| जंगलों में भटकते हुए केवल क्षुधा-तृप्ति के कारण दूसरे प्राणियों के संपर्क में आनेवाला मनुष्य समूह  के नियमों एवं सहनिवास के व्यवहार को समझने एवं उनका निर्माण करने लगा| आधुनिक युग में मनुष्य में जो मानसिक एवं व्यवहारिक गुणवत्ता पाई जाती है वो समूहों में रहना सीख रहे मनुष्य के लिए सहज ना थी| प्रेम और घृणा जैसी सामान्य किन्तु सूक्ष्म वृत्तियों का आभास करना, उन्हें अभिव्यक्त करना और अपने ऐसे ही ईश्वर प्रदत्त स्वभाव का अनुसन्धान एवं विकास करना मनुष्य के लिए मुश्किल तो रहा होगा किन्तु जिस तरह के समाज में मनुष्य आज रहता है यह उसी विकास-यात्रा का एक लाक्षणिक पढाव है| वर्तमान में आधुनिक संसाधनों की उपलब्धता के साथ-साथ मनुष्य भावनात्मक स्तर पर भी परिवर्तनों का सामना कर रहा है| आज मनुष्य की सहजता खो चुकी है ऐसा केवल अनुभवों के आधार पर नहीं कहा जा सकता किन्तु उसके सर्वव्यापी परिणाम प्रमाणित करते हैं कि जिस सहनिवास की व्यवस्था का मनुष्य स्वयं सृजनकर्ता है उसे आज वह किसी भ्रम में नष्ट करने को आतुर है| टूटते परिवार इसी भ्रम एवं मानव-मन में हुए अनावश्यक एवं निराधार परिवर्तनों का परिणाम हैं|
कोई राज्य किसी एक व्यक्ति के समृद्ध होने से समृद्ध नहीं होता अपितु हरेक व्यक्ति का संतोष ही राज्य की संपत्ति है| सत्य तो यह भी नहीं की सफलता किसी एक व्यक्ति का उपक्रम है क्यूंकि कार्य सभी के सहयोग एवं समन्वय से पूर्ण होता है| राज्य के लिए जितना आवश्यक आर्थिक विकास है उतना ही प्रजा का भावनात्मक एवं व्यावहारिक संतुलन एवं विकास| 'परिवार' वही समूह है या यूँ कहें की समाज की ऐसी इकाई जो राज्य की व्यावहारिक एवं वैचारिक सम्पन्नता की दिशा निर्धारक है| उम्र में अपने-से बड़ों का आदर करना, छोटों को स्नेह देना, अपने हमउम्र को साथी बनाना, सभी का ख्याल रखना, सहयोग करना, सामान व अपनी भावनाओं को बाँटना, मर्यादाओं और अनुशासन में रहना आदी अनेक बातें जिन्हें आधुनिक समाज में जीवन-मूल्य कहा जाता है, परिवार में ही सीखी एवं सिखाई जाती हैं| किसी भी व्यक्ति का प्रथम विद्यालय परिवार है, स्वजन शिक्षक हैं और भविष्य तय करने वाला शिक्षण यहीं से प्राप्त होता है|
वर्तमान में एकल परिवारों की संख्या में वृद्धि समाज एवं सांस्कृतिक मूल्यों के लिए खतरा है| कारण कुछ भी हो, परिवार से अलगाव किसी भी स्थिति में लाभदायक नहीं| परिवार नाम की संस्था जो संबंधों को परिभाषित एवं जीवित रखती है, बिखर जाने पर किसी बड़ी सामाजिक त्रासदी को भी जन्म दे सकती है| कठोर मनः स्थिति वाले वृद्ध एवं बड़े, परिवार के विभाजन को सहन कर सकते हैं किन्तु बच्चों के कोमल ह्रदय को लगने वाला आघात  उन्हें जीवन भर पीड़ा देता है|
जिस अवस्था के आधार पर पूरे  जीवन की ईमारत खड़ी होनी है, बड़े लोग अपने स्वार्थों के लिए उसी पर गहरे प्रहार करते हैं    और वो प्रहार किसी अस्त्र या शस्त्र से नहीं वरन बच्चों को उनके दादा-दादी, काका-काकी,ताऊ-ताई , मामा-मामी,           मौसा-मौसी, भाई-बहनों से दूर कर किया जाता है| बच्चे जिस चाव से दादी की कहानियाँ सुनते हैं, उतना ध्यान वे शायद कक्षा में भी नहीं देते| यही कहानियाँ  जिनमें जीवनानुभव, विनोद, ज्ञान, विवेक, व्यवहार आदी बहुत-से मूल्य मिश्रित होते हैं बच्चों के लिए सारे  जीवन की प्रेरणा बन जाती हैं| दादा के साथ टहलना, दुनिया को अपनी कच्ची समझ और दादा की अनुभवी और परखी आँखों से देखना बचपन में ही महान जीवन जीने के गुण सिखला देता है| काका के साथ ठिठौली, काकी को मन के भेद कहना, घर के बच्चों के साथ भागम-भाग करना, माता-पिटा की डांट सुनना, कितनी ही साधारण किन्तु महत्वपूर्ण बातें हैं जो आगामी जीवन की छवि तैयार करती हैं|
           परिवार का बिखर जाना किसी बच्चे के लिए उसके सबसे प्यारे खिलौने का टूट जाना है| बचपन और खिलौने का भावनात्मक जुडाव सांख्यिकी से परे है और बच्चे का परिवार से प्रेम और जुड़ाव भी जांच पाना असम्भव है| वर्तमान में बच्चों में ज्ञान, विवेक, व्यावहारिकता की कमी, सहिष्णुता और समन्वय का ह्रास, गहन असंतोष और अवसाद आदी अनेक मानसिक, शारीरिक, भावनात्मक एवं सामाजिक समस्याएँ हैं जो परिवार रुपी खिलौने के टूट जाने का परिणाम हैं| बच्चों के अवचेतन में परिवार के विभाजन से हुई क्षति की पूर्ती किसी भी तरह से नहीं की जा सकती| दुर्भाग्य से जिस स्थिति और घटना पर बच्चों का कोई नियंत्रण नहीं उसका सर्वाधिक दुष्प्रभाव और हानि उन्हीं के हिस्से आती है| माँ-बाप ये जरूरी समझें कि शिक्षणालय अच्छे इंसान नहीं बनाते, अच्छे इंसान का जन्म परिवार में ही होता है|

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