बदन से पसीना नहीं खून बह रहा था ! जिसकी कीमत महज़ पचास रुपयों या थोड़ी सहानुभूति से अदा कर पाना कहाँ संभव है ? नागपुर शहर यूँ तो संतरा नगरी के नाम से मशहूर है और देश के मध्य में होने की वजह से यहाँ व्यापार भी अच्छा होता है पर गर्मियों में बिना रुके चढ़ता पारा घर से बाहर निकलना दूभर कर देता है| ऐसे में किसी दिन हिम्मत कर सड़क पर निकल जाइये और जैसा कि हिन्दुस्तान की तकदीर है कि यहाँ आदमियों की कीमत किसी पशु से भी कम है, देखिये फिर नज़ारा और भाँपिये कि पेट की गर्मी ज़्यादा है या चिलचिलाती धूप ! ऐसा ही एक अनुभव मुझे मिला एन.गणेश अय्यर के साथ| पेशा रिक्शा चलाना; शौक, शराब; अंदाज़, फक्कड़| ८ फ़रवरी, १९६८ को बैंगलोर में जन्में गणेश अपने पिता की तीसरी संतान हैं| पिता का तो खैर इस ही वर्ष स्वर्गवास हो गया, दो भाई भी गुज़र चुके हैं, दो बहने हैं बस| पिता पोस्ट एण्ड टेलीग्राफ विभाग में मुलाज़िम थे, बड़ा परिवार किसी बोझ से कम नहीं था| गणेश छोटे अपराध करता और ऑटो चलाता था| १९९३ में जब किसी बड़े अपराध में फंसा तो भाग कर नागपुर आ गया और रिक्शा चलाने लगा| शादी की नहीं और परिवार में भाई और पिता के सिवा कोई और नहीं| आज अकेला गणेश, नज़दीकी ठिकानों पर यात्रियों को पहोंचाता है और दूर जाने वाले मुसाफिरों को सलाम कह देता है| शनि मंदिर से इतवारी की दूरी ५ से ६ कि.मी होगी, चलने को कहा तो मना कर दिया पर दोपहर में कहाँ कोई साधन मिलता, कहा रिक्शा मैं चला लेता हूँ ! जवाब मिला "चलना है तो फिर चलते हैं" | कुछ दूर चलने पर रिक्शा रोक कर, गणेश उतरा और कहा "टानिक लेकर आता हूँ"| शराब पेट में क्या उतरी, ज़बान अंग्रेजी बोलने लगी - are you doing engineering ? फिर तो बातचीत का सिलसिला बड़े आश्चर्य से शुरू हुआ ! शादी की है ? जवाब मिला, "पहले अपनी औकात देखो, किसी लड़की की ज़िन्दगी बर्बाद करने का हक तुम नहीं.........जब खुद का कोई भरोसा नहीं, तो किसी का साथ क्या निभाया जायेगा"| छोटा कद, दुबला शरीर, लड़खड़ाते पैर और कम्पते हाँथ, नशे में डूबी ज़िन्दगी और खाली पेट जीना कैसा होता है, देख कर रौंगटे खड़े हो गए| फिर भी ताकत पैरों की थी या नशे की रिक्शा चल रहा था और मन उबल रहा था| अकेलेपन में किसी अनजान मुसाफिर से कुछ सहारा मिलने पर मन से जो गुबार फूटा उसे कह पाना मुश्किल भी है और किसी लाचार ज़िन्दगी का मजाक भी| १५ मिनिट का सफ़र तय हुआ १ घंटे में लेकिन उस दौरान जो महसूस किया और जिस तरह एक आलीशान शहर को देखा, अभी भी आँखें नम हैं| चप्पल की बद्दी टूट जाने पर उसे जुडवाने का ख्याल ही झूठा है क्यूंकि पहले से दो जोड़ और चप्पलें तैयार हैं| पिता कोई कमी नहीं रहने देते, मेस का खाना अच्छा नहीं लगता, किसी महेंगे रेस्त्रों में जाना आम है| रिक्शे में बैठे-बैठे एक विज्ञापन दिखता है - 'lifestyle' - नज़र गणेश की ओर जाती है और खुद पर ही हँसी आ जाती है| उसे देख कर लगा ज़िन्दगी रिक्शे पर चल रही है या उसके पहियों के नीचे क्यूंकि जितनी रकम उसे दिन भर में मिलती है उसकी तिगुनी तो किसी गेमिंग ज़ोन पर मेरा छोटा भाई खर्च कर देता है| अपनी सम्पन्नता पर तब और शर्म आती है जब गणेश पूछता है - चाय पियेंगें ?- मना करने पर कहता है - 'पैसा, मैं दूंगा जनाब'! हँस कर टाल देता हूँ|
लिखने को तो ऐसी कहानियाँ कितनी हैं....पोथियाँ भर जाएँ ! सोचा एक तस्वीर ले लूँ फिर ख्याल आया जिस को बदलने की कूबत नहीं उस तस्वीर को फेसबुक पर अपलोड कर अपनी अच्छाई का ढिंढोरा ही पिटूँगा| ये पोस्ट लिख कर भी कुछ ऐसा ही लग रहा है पर उस दृढ़ता की और एक कदम ज़रूर उठा है कि भौतिकवादिता से भरपूर इस युग में ज़िन्दगी को हारने नहीं देना है और इंसान के आत्मसम्मान को विजय दिलानी है|
बच्चन मधुशाला कि कुछ पंक्तियाँ याद आती हैं -
"मानव बल के आगे निर्बल भाग्य सुना विद्यालय में
भाग्य प्रबल मानव निर्बल का पाठ पढ़ाती मधुशाला "
6 comments:
good story.
nice post ... good and clear description .. good message and flowing language :) ... but we don't have to do any cut offs for ganesha's initial fault :) why to feel guilty then
मन को छूने और दिमाग को झकझोरने वाली एक सार्थक पोस्ट ...बहुत ही अच्छा लिखते हो प्रियांक...लेखनी में गजब की धार है ..keep writing.....
प्रभावी लेखन...
अपनी धार को और तेज कीजिये ...
संभावनाएं अपार हैं....
like it ...
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