Thursday, December 16, 2010

राजमिस्त्री

७६, अशोकनगर,फ्रीगंज, उज्जैन (म.प्र)| मध्यप्रदेश पर्यटन  मंत्रालय के आकर्षक विज्ञापनों को देखकर कभी आप घूमने का मन बनायें तो उज्जैन अवश्य पधारें|भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंगों में से एक भगवान महाकालेश्वर का मंदिर उज्जैन में ही है और बारह वर्षों के अंतराल में लगने वाला कुम्भ-मेला उज्जैन में भी लगता है, जिसे सिंहस्थ भी कहा जाता है|  आप यदि उज्जैन आयें तो उपर्युक्त पते पर सदर आमंत्रित हैं| अशोकनगर, उज्जैन की बंद कपडा मीलों और बर्बाद उद्योगों का गवाह है; दिहाड़ी मजदूरों का यह महोल्ला, उज्जैन शहर में बन रहे नए मॉल की असलियत बयां करता है|  बुंदेलखंड के किसी गाँव में ज़मींदार हमारे पूर्वज वहाँ फैली महामारी की वजह से उज्जैन आकर बसे| और जैसा प्रायः होता है, शहरों में आने वाला ग्रामिण अपने साथ ज्यादा कुछ नहीं लाता सो मेरे परदादा भी अपने साथ जमींदारी खून और कुछ कपड़ों के साथ उज्जैन आये और एक कपडा मिल में काम करने लगे| समय गुज़रा और स्थिति में कुछ सुधार हुआ तो जहाँ हम रहते हैं वहाँ मेरे दादा और उनके भाइयों ने एक पर्चून की दुकान डाल ली| अस्सी के दशक तक जीवन बहुत सुन्दर और शांत बना रहा| सभी उद्योग और कपडा मिलें चल रहे थे और उज्जैन शहर के सारे  परिवार सम्पन्नता से गुजर-बसर कर रहे थे| पर ट्रेड-यूनीअंस , भाई-भतीजावाद की राजनीति, कामगारों की मक्कारी और मालिकों की उदासीनता, जाहिर है ! , चलते मिल और उद्योग बंद हो गए| आज तक उज्जैन शहर उसी त्रासदी का दुष्परिणाम भुगत रहा है| रात को मेहनत कर लौटने वाला, ज्वार की रोटी खाने वाला मजदूर, शराब के नशे में ऐसा डूबा कि आज तक उसका परिवार न जाने किस स्थिति में है - सुबह को रोटी नहीं तो शाम को चूल्हे में आग नहीं| महीने के आखिर में पैसा देने वाला मजदूर खुद बेरोजगार हो गया तो हमारा क्या होना था ?
इस मोहल्ले में, मैं, हमारी चौथी पीढ़ी हूँ| समय के साथ हमारे जीवन में तो सुधर हुआ पर अशोकनगर के अधिकतर परिवार आज भी चोरी की बिजली से रोशन हैं और उनके बच्चों की भूख  \आंगनवाडी के पौष्टिक दलिये की महोताज| महंगाई बढ़ गई| मजदूरी भी बढ़ गई| मिस्त्री जहाँ कुछ वर्ष पूर्व १००-१५० में और बैलदार ५०-८० रूपये में मिलता था वहीँ आज मिस्त्री ३५०-४०० और बैलदार २०० का हो गया है|(ये आँकड़े मेरी स्मृति के आधार पर हैं और ऊपर लिखा हुआ बड़ों से सुना है)| पर मजदूरी बढ़ने के साथ ही मजदूरों कि आदतें और बिगड़ गयीं ! शराब के साथ जुआं शुरू हो गया और उनका परिवार आज भी वही लाचारी की ज़िन्दगी जी रहा है|
परिवार में विघटन के बाद, मुझे याद है हमारे तीन कमरे के पुराने घर में मेरे दादा-दादी, पापा-मम्मी, चाचा और मैं रहते थे| मेरी छोटी बहन का जन्म भी पुराने घर में हुआ| जो भी स्थिति रही किन्तु वर्ष १९९८ में हमारा नया घर बना(अशोकनगर में ही), जो कि अभी अधूरा ही था, पर हम उसमें रहने चले गए| उसी घर के पुनः-निर्माण का कार्य शुरू हुआ २००६ में जो किसी न किसी कारण से छूटता ही रहा| और आज तक जारी है ! घर बनने से लेकर पिछले वर्ष तक हुए पुनः-निर्माण के कार्यों और इस वर्ष हुए निर्माण में जो असमानता है वह है हमारे महोल्ले के मिस्त्री 'प्रमोद' का न रहना| घर के निर्माण से पिछले वर्ष तक हुए हुए सभी ही निर्माण कार्य करने वाले मिस्त्री प्रमोद को हमारा राजमिस्त्री कहा जाने लगा था| पिछले वर्ष लीवर और फेफड़ों में आई खराबी से उसकी बड़ी कष्टमय मौत हो गई| अब उसकी एक विधवा पत्नी है, ८-९ साल का लड़का है और २-३ साल की लड़की| दुःख होता है, हाथ में हुनर और दिमाग होने के बावजूद,उसकी आदतों का खामियाजा उसका परिवार बेसाहार हो कर उठा रहा है| उसे तो शायद मौत ने शारीरिक कष्ट से मुक्ति दे दी पर उसका परिवार अत्यंत कष्ट में पल रहा है| ३-४ बार चेतावनी मिलने पर भी अपनी आदतों को ना छोड़ पानेवाला प्रमोद खुद का अपराधी तो है ही साथ ही अपने परिवार का भी है| पर प्रमोद अकेला ही अपराधी नहीं है, निजी स्वार्थों के लिए उद्योग बंद करानेवाले राजनेता और मजदूरों को बेरोजगार छोड़ देने वाले मिल मालिक बराबर के अपराधी हैं| अशोकनगर जैसी बस्तियाँ उदाहरण हैं एक ऐसी दुर्घटना का जिसका खामियाजा पीढ़ियों तक भुगतना पड़ता है|
देश के दूसरे कई जिलों में, कस्बों में, गावों में, प्रमोद जैसे मिस्त्री हैं और उनके परिवार हैं| जिस महोल्ले में मैं बड़ा हुआ, जिन बच्चों के साथ में खेला, कैसी विडम्बना है, कि मैं, आज एक राष्ट्रिय स्तर के संस्थान में पढ़ रहा हूँ और मेरे बचपन के साथी काम कर रहे हैं - कोई किसी प्राइवेट ऑफिस में चपरासी है तो कोई किसी कपडे कि दुकान पर नौकर| कभी नाली से उठाई गेंद से खेलने पर शर्म न करने वाले हाथ आज एक-दूसरे से मिलने में कतराते हैं| समय और असमान विकास ने शायद यही खाई बनाई है| ऐसा नहीं कि मेरा परिवार बहुत साधन-संपन्न है या उद्योगों के बंद होने का नुकसान हमें नहीं हुआ| यहाँ यह तुलना अनिवार्य है कि किसी एक ही कारण से नुकसान में आये दो परिवार, सामान रूप से भरपाई क्यूँ नहीं कर पाए ! पिताजी इसे परिवार की मितव्ययता और जागरूकता का परिणाम कहते हैं| मेरी समझ इसे स्वीकार कर भी ले तो क्यूँ बीते दशकों में हमारे मोहल्ले की तस्वीर नहीं बदली या क्यूँ ऐसे महोल्ले की तादाद बढ़ी ही ? इस बीच पीढ़ियाँ तो बदलीं पर क्या सोच नहीं ! ! ?
कुछ वर्षों के बाद मेरी पढाई पूरी होगी और हमारा नाता अशोकनगर से टूट जायेगा पर वहाँ की अबो-हवा और जमीन जिस संघर्ष, जिस दर्द और जिस मेहनत की निशानी है, क्या कभी नियति से प्रश्न कर पायेगी ! ! !
कहीं पढ़ा था ये शेर -
"मयखाने में किसने कितनी पी, खुदा जाने मगर
 मयखाना मेरी बस्ती के कई घर पी गया"

Wednesday, December 8, 2010

स्पेक्ट्रम और अश्वेत प्रकाश

प्रतिदिन नए घोटालों की ख़बरें और आरोपों-प्रत्यारोपों का गर्म बाज़ार | हिंदुस्तान जैसे बड़े और बड़ी सहनशक्ति वाले देश में ऐसा सब होना आम तो नहीं कहा जा सकता पर इसमें खास भी कुछ नहीं | देश को चपत लगाना और जनता को मूर्ख बनाना नेताओं और अधिकारियों का असल पेशा है, हम सभी जानते हैं | और इसी व्यवस्था से हुआ कहीं थोडा अच्छा और कहीं अधकचरा-सा विकास सहनुभूति | नेता देश को न खा जाये इसलिए अधिकारी हैं, दोनों मिलकर देश को न खा जाएँ इसलिए न्यायपालिका है और वर्तमान में सर्वशक्तिमान चतुर्थ स्तम्भ पत्रकारिता है जी उपर्युक्त तीनों ही स्तंभों का परीक्षक है | आश्चर्य देखिये ! स्पेक्ट्रम घोटाले ने भारत की शाशन व्यवस्था के स्पेक्ट्रम को ही गड़बड़ा दिया है, चारों के चारों स्तम्भ शाशन छोड़ घोटाले के पाए बन गए हैं |
     मैं तो अभियांत्रिकी का विद्यार्थी हूँ और मेरा इन सब बैटन से कोई विशेष सरोकार नहीं | दो वर्ष बाद किसी बड़ी कंपनी में नौकरी लग जाएगी और जेब में इतना पैसा तो आ ही जायेगा कि देश कि लचर और चरमरायी हुई व्यवस्था कम-से-कम मेरे रस्ते का रोड़ा तो न बन पायेगी | सेमेस्टर ख़त्म हुआ है और अवकाश भी जरी हैं, यात्रा भी बहुत हो रही हैं अतएव परे-पत्रिकाओं से नाता बना हुआ है सो गपशप के लिए इससे बेहतर कौनसा विषय हो सकता है |
     इसमें अविश्वसनीय कुछ भी नहीं क्यूंकि जिस युवा-वर्ग को देश का कर्णधार बताया जा रहा है, प्रायः यही सोच उसके दिलोदिमाग पर हावी है | अंग्रेजी में कहूँ तो - there is nothing promising and nothing transformational at all. यदि यहाँ भी सहानुभूति चाहिए हैं कुछ उग्र, क्रन्तिकारी एवं जोशीले नौजवान जो सोचते हैं देश के बारे में लेकिन उम्र की गर्मजोशी में वो भूल जाते हैं कि आदमी को पेट भी होता है और यही उसे विषम परिस्थितियों में मार्ग से भटका देता है | मेरा उद्देश्य उनको हतोत्साहित करने का नहीं है किन्तु दिशापरक बनने का सुझाव है | आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में - " कार्य सिद्धि के लिए विचार और दृष्टि के साथ दिशा भी महत्त्वपूर्ण है|" The paradox of India is not in 'unity in diversity', it is in our oneness without apparent integrity, indeed.
   हमारा सोच देश के प्रति नहीं अपितु स्वयं के प्रति अधिक है | और एक मौलिक प्रश्न है मानव के अस्तित्व और आचरण का ? वर्तमान में वैश्विक स्तर पर घट रही घटनाएँ, हमारे देश में घट रही घटनाएँ किस प्रलय या कि निर्वाण कि भूमिका बना रही हैं अज्ञात है |  Be a human, all problems will be solved themselves. भ्रष्टाचार हो या कि विषमता या आतंक या असुरक्षा, कितनी भी समस्याएँ गिनिये और उनका विशलेषण कीजिये सभी के मूल में हमारा मनुष्यत्व को खो देता है | निश्चित यह किसी महात्मा के प्रवचनों का अंश लगे और कोई व्यवहारिक निदान नहीं किन्तु है तो सच ही | हमने विकास को परिभाषित ही भौतिक संसाधनों कि वृद्धि के रूप मरण किया है तो धन का असंयमित संयोजन और उपयोग तो स्वाभाविक ही है |
कहीं पढने में कुछ बातें आई थीं और सराहनीय भी लगीं -
* stop digging when you feel that you have fallen very deep.
* when great responsibilities thrust upon you, self-introspection is in order.
Be the change yourself, वास्तव में गाँधी युगदृष्ट थे | खैर कहानी-किस्सों से किसी का पेट नहीं भरता | नीतियाँ और उनका क्रियान्वन ही लोगों को लाभ पहोंचा सकते हैं | पर नीतियों के निर्माण का आधार जो हम हैं वो रहे न कि जो हमें होना चाहिए वो |