Wednesday, December 8, 2010

स्पेक्ट्रम और अश्वेत प्रकाश

प्रतिदिन नए घोटालों की ख़बरें और आरोपों-प्रत्यारोपों का गर्म बाज़ार | हिंदुस्तान जैसे बड़े और बड़ी सहनशक्ति वाले देश में ऐसा सब होना आम तो नहीं कहा जा सकता पर इसमें खास भी कुछ नहीं | देश को चपत लगाना और जनता को मूर्ख बनाना नेताओं और अधिकारियों का असल पेशा है, हम सभी जानते हैं | और इसी व्यवस्था से हुआ कहीं थोडा अच्छा और कहीं अधकचरा-सा विकास सहनुभूति | नेता देश को न खा जाये इसलिए अधिकारी हैं, दोनों मिलकर देश को न खा जाएँ इसलिए न्यायपालिका है और वर्तमान में सर्वशक्तिमान चतुर्थ स्तम्भ पत्रकारिता है जी उपर्युक्त तीनों ही स्तंभों का परीक्षक है | आश्चर्य देखिये ! स्पेक्ट्रम घोटाले ने भारत की शाशन व्यवस्था के स्पेक्ट्रम को ही गड़बड़ा दिया है, चारों के चारों स्तम्भ शाशन छोड़ घोटाले के पाए बन गए हैं |
     मैं तो अभियांत्रिकी का विद्यार्थी हूँ और मेरा इन सब बैटन से कोई विशेष सरोकार नहीं | दो वर्ष बाद किसी बड़ी कंपनी में नौकरी लग जाएगी और जेब में इतना पैसा तो आ ही जायेगा कि देश कि लचर और चरमरायी हुई व्यवस्था कम-से-कम मेरे रस्ते का रोड़ा तो न बन पायेगी | सेमेस्टर ख़त्म हुआ है और अवकाश भी जरी हैं, यात्रा भी बहुत हो रही हैं अतएव परे-पत्रिकाओं से नाता बना हुआ है सो गपशप के लिए इससे बेहतर कौनसा विषय हो सकता है |
     इसमें अविश्वसनीय कुछ भी नहीं क्यूंकि जिस युवा-वर्ग को देश का कर्णधार बताया जा रहा है, प्रायः यही सोच उसके दिलोदिमाग पर हावी है | अंग्रेजी में कहूँ तो - there is nothing promising and nothing transformational at all. यदि यहाँ भी सहानुभूति चाहिए हैं कुछ उग्र, क्रन्तिकारी एवं जोशीले नौजवान जो सोचते हैं देश के बारे में लेकिन उम्र की गर्मजोशी में वो भूल जाते हैं कि आदमी को पेट भी होता है और यही उसे विषम परिस्थितियों में मार्ग से भटका देता है | मेरा उद्देश्य उनको हतोत्साहित करने का नहीं है किन्तु दिशापरक बनने का सुझाव है | आचार्य महाप्रज्ञ के शब्दों में - " कार्य सिद्धि के लिए विचार और दृष्टि के साथ दिशा भी महत्त्वपूर्ण है|" The paradox of India is not in 'unity in diversity', it is in our oneness without apparent integrity, indeed.
   हमारा सोच देश के प्रति नहीं अपितु स्वयं के प्रति अधिक है | और एक मौलिक प्रश्न है मानव के अस्तित्व और आचरण का ? वर्तमान में वैश्विक स्तर पर घट रही घटनाएँ, हमारे देश में घट रही घटनाएँ किस प्रलय या कि निर्वाण कि भूमिका बना रही हैं अज्ञात है |  Be a human, all problems will be solved themselves. भ्रष्टाचार हो या कि विषमता या आतंक या असुरक्षा, कितनी भी समस्याएँ गिनिये और उनका विशलेषण कीजिये सभी के मूल में हमारा मनुष्यत्व को खो देता है | निश्चित यह किसी महात्मा के प्रवचनों का अंश लगे और कोई व्यवहारिक निदान नहीं किन्तु है तो सच ही | हमने विकास को परिभाषित ही भौतिक संसाधनों कि वृद्धि के रूप मरण किया है तो धन का असंयमित संयोजन और उपयोग तो स्वाभाविक ही है |
कहीं पढने में कुछ बातें आई थीं और सराहनीय भी लगीं -
* stop digging when you feel that you have fallen very deep.
* when great responsibilities thrust upon you, self-introspection is in order.
Be the change yourself, वास्तव में गाँधी युगदृष्ट थे | खैर कहानी-किस्सों से किसी का पेट नहीं भरता | नीतियाँ और उनका क्रियान्वन ही लोगों को लाभ पहोंचा सकते हैं | पर नीतियों के निर्माण का आधार जो हम हैं वो रहे न कि जो हमें होना चाहिए वो |

6 comments:

Unknown said...

great sir

अविनाश वाचस्पति said...

सार्थक विचारों की सुंदर प्रस्‍तुति है। इसे जीवन में अपनाना ही चाहिए।

Anonymous said...

bahut uttam vichaar hain aapke...
mujhe lagta hai hume apni taraf se bhi koshish jaari rakhni chahiye....haalaton ko behtar banane ki....!!!!

apoorva said...

yes..absolutely...if every indivisual thnks like u na....ek sashakta,sudharit aur prabal samaj ban payega.....!! bas bolne se kuch nahi hota,,,only mouth shouldnt work, hands should go wid it.....i m sure india wil rock!!!!!!!

Anonymous said...

serious issue needs to be taken care of...

views on news ......... let's change the world said...

priyank, sorry, could not check your blog that day due to connectivity and then did not get the time...

great style... but you can concentrate more on spellings and sentence formation...

best wishes for future articles... please read my articles and provide your feedback....

Sanjay Ahuja