Monday, November 29, 2010

बात पते की

मैं पुनः आपसे मुखातिब हूँ अपनी कुछ तुकबन्दियाँ लेकर ! इससे पहले कि उनका ज़िक्र हो कुछ चर्चा कर ली जाये- अक्सर मैंने अपने बड़ों को उनके लड़कपन की मस्तियों और गलतियों को याद करते सुना है पर जब मै खुद आज उस उम्र में हूँ तो उनकी बातें कभी मन को भाती हैं तो कभी अच्छी नहीं लगतीं | मेरा इसे व्यक्तिगत दोष नहीं माना जा सकता कि मै बहुत तीव्र प्रगति की आकांक्षा रखता हूँ क्यूंकि मेरी पीढ़ी में दौड़ता हुआ खून ही इतना गर्म है की ठहराव तो उसे भाता ही नहीं, धैर्य और परिश्रम बहुत कम किन्तु परिणाम शत प्रतिशत किन्तु पीढ़ियों का विवाद यहीं जन्म लेता है | मेरे पिता का कहना है "खेल खेलते वक़्त अपना सुरक्षा घेरा दुरुस्त रक्खो" और मैं अग्रिम पंक्ति में खेलना चाहता हूँ और विडंबना देखिये कि दोनों की कही बातें एक साथ हो सकती हैं किन्तु होती नहीं पर जहाँ होती होंगी क्या पता परिणाम शायद बेहतर भी होते होंगे या नहीं भी | हमारा सोच निश्चित उत्कृष्ट है पर प्रायः दिशाहीनता की स्थिति बन जाती है और कार्य विफल हो जाते हैं और फिर कोई संदेह  नहीं कि कहाँ पलट कर किसे देखना पड़ता है| मै अपने पिता से कुछ साधारण बातचीत भर कर रहा था किन्तु जो ज्ञान मुझे मिला प्रभावी था| उनका ये कहना कि शुभ से संयोजित लाभ ही जीवन को सही दिशा और गति से आगे बढ़ता है कहीं गलत नहीं है | यदि हमारा "आचरण अच्छा है और ज़रूरतें कम तो जीवन कभी कठिनाइयों में नहीं पड़ता", बात तो ये भी ठीक ही है | "सतत काम करते जाने से ही फल प्राप्त होता है केवल मौकों की तलाश और उचाइयों के ख्वाब सफलता नहीं हैं" | बात पते की है, फिर उसी चर्चा को मेरे लड़कपन के शायर ने जैसे बंधा सो वो भी प्रस्तुत है, पाठक पढ़ें और जांचें कि वो कितने लड़के हैं और लड़के कितने लड़के हैं .......



गिर चुके हजारों चल कर, कुछ दौड़ते हैं 
आगाह कर दो,रास्तों पर फिसलन बहुत है 

भटकने से मिलती नहीं मंजिल कभी ऐ-दोस्त-मेरे
बेहतर है ठहर जाओ कहीं, तलाश तो कोई ठौर नहीं 

करने-से-किसके-क्या होता है? जग बदलता तो नहीं
पल में झपटता है शिकारी, बैठा हो पहरों से कहीं  

किताबों की दुनिया गुलाबों की सेज तो नहीं है
है तो दुनिया ही, न खोये रानी ये कोई मेल नहीं है 

है नाच और तमाशा बंदरों का तो क्यूँ नहीं बनते मदारी मेरे भाई 
यूँ तो तमाशबीन ही अच्छे हो,धुन तुम्हारे लिए किसने बजायी 

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