Sunday, April 4, 2010

cinemai-safar

कल तो बीमारी का बहाना बना दिया

लेक्चर बंक करा दोस्तों ने सिनेमा दिखा दिया

आज तो मन बेचैन है की पढना है

पर फिल्म का पहला शो भी ना तजना है

अब कश्मकश किस और ले जाएगी

लगता तो यही है कि पापाजी कि लाठी पड़वाएगी

फिर पढने की व्यस्तता में से तीन घंटे

चार चेप्टर छोड़ भी दो तो चालीस तो पक्के

भाई, तीन घंटे तो फिर भी समझ आ गए

पर ये सिनेमाई-तफ्तीश के दौर दो घंटे और खा गए

गपशप  में डूबे दो घंटे और

हम चले पासिंग मार्क्स की और

चालीस नहीं तो तैंतीस तो आ ही जाएंगे

एग्रीगेट हम प्रक्टिकल से बनाएँगे

घर पहोंचते ही किताब पर नज़र डाली

उसकी लम्बाई-चौड़ाई ने साँस फुला डाली

बचा अब तो बस कुंजी और अन्साल्वड का सहारा था

बेमतलब हमने कितना समय गवां डाला था

फिर भी  कांफिडेंस में कमी नहीं है

लगता है आइन्स्टीन और न्यूटन के वंशज यही हैं

आत्म-विशलेषण के इस दौर ने आधा घंटा खा लिया

घडी ने दिखा बारह टेबल पर ही सुला दिया

सुबह उठके पढने  का दृढ संकल्प लिए

अलार्म घडी और किताब गोद में लिए

नींद तो तुरंत आ गई, पर

सपने में सिनेमा की स्टोरी छा गई

नायिका की गोद में तो नायक था

ये हमारे जैसा दिखता कौन नालायक था

खैर मुलायम गोद और प्यार की थपकी में

अम्मा याद आ गई, जब चार बजे

उठना था, जो घडी सात बजा गई

घडी में बजे हैं सात, पेपर है आठ पर

क्या पास कर जाएंगे भैया साठ-गांठ कर 

लगता तो नहीं: कुछ तो पढ़ लिए होते

पर्ची के छोटे अक्षर अंतर्ज्ञान से पढ़ लिए होते

पर अब तो सब गुजर चुका था 

तीन घंटे का एक और सिनेमाई सफ़र बिना इंटरवल के

ख़त्म हो गया, भैया बेचारा 

ये दोस्तों की सिनेमा के कारण फेल हो गया |

चेमिस्ट्री में आई री-एक्साम के बाद लिखी मेरी एक कविता |



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